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“शहादत की वो गूंज, जो आज भी पड़ैनिया की फिज़ाओं में जिंदा है”

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रेयाज अहमद की रिपोर्ट

मोहम्मदाबाद- गाजीपुर जनपद के मोहम्मदाबाद तहसील के एक छोटे से गांव पड़ैनिया में आज भी जब शाम ढलती है और गांव की गलियों में सन्नाटा उतरता है, तो हर दिल एक नाम बड़ी श्रद्धा से याद करता है — अमर शहीद रामदुलार यादव। वह सपूत, जिसने अपना बचपन खेतों की मेड़ पर दौड़ते, बास्केटबॉल खेलते और मां की ममता की छांव में बिताया। लेकिन जब वक्त आया, तो उसी माटी की सौगंध लेकर अपने प्राण इस देश की रक्षा में न्योछावर कर दिए।

1 जुलाई 1974 को एक किसान परिवार में जन्मे रामदुलार यादव का सपना भी दूसरों की तरह एक सुखी घर-परिवार बसाने का था, लेकिन सीने में देशभक्ति की ऐसी आग जल रही थी कि वह चैन से बैठना नहीं जानते थे। पढ़ाई पूरी कर जैसे ही 12वीं पास की, दिल में एक ही धुन थी — सेना में जाकर मां भारती की सेवा करना। और वही हुआ, 4 जुलाई 1992 को वह भारतीय सेना की 13 कुमायूँ रेजीमेंट में भर्ती हुए। रानीखेत में ट्रेनिंग के बाद जब पहली बार वर्दी पहनी, तो आंखों में मां, पिता और परिवार का चेहरा था — और दिल में सिर्फ देश।

शादी के बाद भी उनका वही जज्बा बरकरार रहा। पत्नी प्रमिला देवी और दो मासूम बच्चों के साथ जब भी छुट्टियों में गांव आते, तो बच्चों को गोद में खिलाते, मां-बाप के पैरों को छूते और गांव वालों से हंसी-ठिठोली करते। कौन जानता था कि यही बेटा, यही पिता, यही पति — एक दिन देश के लिए कुर्बान होकर अमर हो जाएगा।

कारगिल युद्ध जब छिड़ा, तो उन्हें भी मोर्चे पर भेजा गया। मौत सामने खड़ी थी, लेकिन उनके सीने में जो हौसला था, वह किसी दुश्मन की गोली से डरने वाला नहीं था। 21 अगस्त 1999 का वो दिन… जब राजौरी सेक्टर की एक पहाड़ी पर तैनात रामदुलार यादव पाकिस्तान के घुसपैठियों से लोहा ले रहे थे। गोलियां चल रही थीं, और मां भारती का यह सपूत हर गोली का जवाब सीने पर लेकर दे रहा था। आख़िरकार, दुश्मन की एक गोली उनके सीने को चीरती हुई निकल गई। जमीन लहूलुहान हो गई, और वह वहीं मातृभूमि की गोद में सो गए।

जैसे ही यह ख़बर मोहम्मदाबाद कोतवाली पहुँची और फिर उनके घर आई — गांव में एक पल के लिए सब कुछ ठहर गया। मां की चीख, पत्नी का करुण क्रंदन, बच्चों का बिलखना… और पूरे गांव की आंखें नम। छोटे-छोटे बच्चे जो रामदुलार यादव को फौजी अंकल कहकर पुकारते थे, वो भी उस दिन खामोश हो गए। उनके अंतिम संस्कार में हजारों लोग उमड़े। सांसद कलराज मिश्र और विधायक अफजाल अंसारी भी पहुंचे, और श्रद्धांजलि दी।

जिस मिट्टी ने इस लाल को जन्म दिया था, उसी ने उसे अपनी गोद में सुला लिया। आज भी हर 21 अगस्त को गांव में शहीद दिवस मनाया जाता है। उनकी प्रतिमा के सामने फूल चढ़ते हैं, दीये जलते हैं और उनकी वीरता के किस्से बुजुर्ग बच्चों को सुनाते हैं।

सरकार ने शहीद की शहादत के बाद परिवार को 20 लाख रुपये, एक पेट्रोल पंप और दिल्ली में एक फ्लैट तो दिया, लेकिन गांव वालों का कहना है कि रामदुलार यादव जैसा बेटा हजारों करोड़ रुपये से भी अनमोल था। आज उनका बेटा अमित प्रयागराज में पढ़ाई कर रहा है और बेटी का विवाह हो चुका है। उनके दो भतीजे अब सेना और नेवी में देश सेवा कर रहे हैं।

शहीद रामदुलार यादव पांच भाइयों में चौथे थे। उनके माता-पिता भी अब इस दुनिया में नहीं हैं। मगर उनका पूरा परिवार आज भी एक साथ, उसी घर में, उसी मिट्टी से जुड़ा हुआ है। जब भी गांव के बच्चे उनकी प्रतिमा के सामने से गुजरते हैं, तो आंखों में चमक और दिल में गर्व भर आता है।

रामदुलार यादव का नाम इस देश के इतिहास में हमेशा अमर रहेगा। उन्होंने अपने प्राण देकर यह सिखा दिया कि वर्दी पहनने का मतलब सिर्फ तनख्वाह लेना नहीं, बल्कि उस वर्दी की शान के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर देना है। उनकी शहादत की महक आज भी पड़ैनिया की हवा में घुली है।

मां भारती का वह वीर सपूत अमर रहे… अमर रहे…।

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